पेशवाओं का गणेशोत्सव बना नए भारत की पहचान
31-08-2025 10:47:07 PM

पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गणपति की स्थपना शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी। परंतु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को जो स्वरूप दिया उससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधरोपण किया था वह अब विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। 1893 में जब बाल गंगाधर जी ने सार्वजानिक गणेश पूजन का आयोजन किया तो उनका मकसद सभी जातियो धर्मो को एक साझा मंच देने का था जहा सब बैठ कर मिल कर कोई विचार कर। सके तब पहली बार पेशवाओ के पूज्य देव गणेश को बाहर लाया गया था , वो तब भारत में अस्पृश्यता चरम सीमा पर थी, जब शुद्र जाती के लोगो को देव पूजन का ये अपने में पहला मौका था, सब ने देव दर्शन किये और गणेश प्रतिमा को चरण छु कर आशीर्वाद लिया , उत्सव् के बाद जब प्रतिमा को वापस मंदिर में स्थापित किया जाने लगा (जैसा की पेशवा करते थे मंदिर की मूर्ति को आँगन में रख के सार्वजानिक पूजा और फिर वापस वही स्थापना) तो पंडितों ने इसका विरोध किया के ये मूर्ति को अछूतो ने छू लिया है तो ये अपवित्र है इसको वापस मंदिर में नहीं रखा जा सकता है तब बवाल न बड़े इसलिए निर्णय लिया कि मूर्ति को सागर में विसर्जित कर दिया जाए, से दोनों पक्षों की बात रह जाएगी तब से मूर्ति पोज से विसर्जन शुरू हो गया या अब काफी फैल गया है इस में केवल महाराष्ट्र में ही 50 हजार से ज्यादा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेशोत्सव मंडल है।
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